बंगाल स्कूल Bangal School आधुनिक भारतीय कला का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। बंगाल स्कूल Bangal School एक नयी कला शैली के साथ-साथ एक आंदोलन भी था। इसका उद्देश्य ब्रिटिश ग़ुलामी से भारतीयता को जीवित रखना भी था।
वैसे तो ये कम्पनी शैली (Bangal School) के बाद बंगाल में पुनरुत्थान की कला के रूप में उदय हुई । मगर, बंगाल स्कूल (Bangal School) या बंगाल शैली ने पूरी भारतीय कला को एक नयी दिशा दी।
अवनींद्रंनाथ ठाकुर ने ई वी हेवेल के साथ मिल के बंगाल स्कूल शैली की स्थापना की थी। मगर इसके उदय होने के कई तत्कालीन पहलू भी थे जिनका हम आगे विस्तार से समझेंगे। वास्तव में, बीसवीं शादी के प्रारम्भ की इस महत्वपूर्ण कला शैली में अबनिंद्रंथ ठाकुर के साथ-साथ उनके शिष्यों का भी महतपूर्ण योगदान है।
इन प्रमुख शिष्यों में नंदलाल बोस, ए के हलदार, के एन मजूमदार, एस एन गुप्ता, और अन्य कई नामी कलाकार रहे हैं।
- बंगाल शैली (Bangal School) की प्रष्ठभूमि
- भारतीय संस्कृति विरासत के प्रति ब्रिटिश सोच
- बंगाल स्कूल (Bangal School) का प्रचार व विस्तार
बंगाल शैली (Bangal School) प्रष्ठभूमि
मुग़ल काल के पतन के पश्चात पूरे भारत में ब्रिटिश हुकूमत का राज था। मुग़ल राज के पतन के पश्चात मुग़ल कला शैली भी पतन की ओर थी।
मुग़ल आश्रय होने के कारण कुछ चित्रकार अपने नये आश्रयदाताओं की खोज में निकालना पड़ा। कुछ पहाड़ों की ओर गये तो कुछ पटना में कम्पनी के अधिकारियों के लिए चित्रकारी करने लगे।
परिणामस्वरूम पहाड़ों पर पहाड़ी शैली व पतन या कम्पनी शैली जैसी शैलियाँ विकसित हयीं।
वहीं दूसरी ओर कमेरे का अविष्कार ना होने के कारण, कई अंग्रेज अधिकारी, पर्यटक यहाँ के चित्रकारों से स्मृति स्वरूप चित्र बनवाने लगे। यहाँ की विविधता से पूर्ण संस्कृति, भेशभूषा, रहन-सहन आदि ब्रिटिन में वहाँ के लोगों के लिए एक नयी व आश्चर्य की चीज़ थी। अतः वहाँ भारतीय परिवेश के चित्रों की माँग बड़ी। इसके अलावा वहाँ से कई चित्रकार भारत आए और यहाँ के कई द्रश्य चित्र बनाए। इसी भारतीयता व विदेशी कलाकारों की शैली से मिलकर कम्पनी शैली का जन्म हुआ व इस शैली का सबसे बड़ा भारतीय चित्रकार राज रवि वर्मा हुआ।
किंतु अब २० शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में स्वतंत्रता की चिंगरियाँ जलने लगीं। देश में भारतीयता को लोगों ने महत्व देना प्रारम्भ कर दिया था। जबकि अंग्रेज अब भी पाश्चात संस्कृति व शिक्षा के माध्यम से भारतीय लोगों को भारत की शानदार संस्कृति व कला से दूर करने का प्रयास कर रहे थे।
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भारतीय संस्कृति विरासत के प्रति ब्रिटिश सोच
- अंग्रेजों ने 19 वी शती के अंत में भारतीय जनता को भारतीयता से दूर रखने का षड्यंत्र रचा।
- अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीयों को उनकी सांस्कृतिक विरासत से विमुख करना था।
- साथ ही यह भी कोशिश थी कि ये लोग अपनी विरासत भूल के अंग्रेज़ी सभ्यता सीखें।
- अतः अंग्रेजों द्वारा भारतीय कला की आलोचना किया जाना स्वाभाविक था।
- हद तो तब हो गयी जब बर्डवुड नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने प्राचीन बोद्ध प्रतिमाओं की आलोचना करते हुए कहा,
“एक उबला हुआ चर्बी से बना पकवान भी आत्मा की उत्कृष्ट निर्मलता तथा स्थिरता के प्रतीक का काम दे सकता है।’’
जार्ज बर्डवुड
कुछ यूरोपीय ने भारतीय श्रेष्ठ मूर्तियों पर यूनानी प्रभाव बताया। इन सब के बावजूद कुछ अंग्रेज ऐसे भी थे जिन्होंने पूरी दुनिया का ध्यान भारतीय कला की ओर खिंचा।
भारतीयों को भारतीयता की ओर मोड़ा। इस क़िस्म के अंग्रेजों में एक ई वी हेवेल थे।
बंगाल स्कूल का उदय
ई बी हेवेल एक प्रभावशाली अंग्रेज कला प्रशासक, कला इतिहासकार व लेखक थे। उन्होंने भारतीय कला व स्थापत्य के ऊपर असंख्य किताबें लिखीं। ये उन अंग्रेजी लोगों में से थे जिनको भारत से सहनुभूति थी। 1884 में वे मद्रास कला विद्यालय के प्रधानाचार्य बने। उन्होंने सारी दुनिया का ध्यान भारतीय कला की ओर आकर्षित किया। भारतीय कला की तारीफ़ करते हुए उन्होंने कहा,
यूरोपीय कला तो केवल सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान करती है पर भारतीय कला सर्वव्यापी, अमर व अपार है। भारतीय कला में कलाकार को दर्शिनिक एवं कवि का स्थान दिया जाता है।
ई बी हेवेल
सन 1896 में वे गवर्न्मेंट स्कूल ओफ़ आर्ट कलकत्ता के प्रिन्सिपल बने। यहाँ उनके सम्पर्क में अबनिंदरनाथ टैगोर आए। दोनों ने मिल के भारतीय कला क्षेत्र में एक नयी विचारधारा को जन्म दिया।
हेवेल् के विचारों से प्रेरित होकर अबनिंदरनाथ ने मुग़ल व अन्य भारतीय शैलियों का अनुसरण करना प्रारम्भ किया। 1902 में दो जापानी चित्रकार यकोहम ताइक्वान व हिदिशा भारत आए। इनके साथ अबनि बाबू दो साल तक रहे व इनसे जापानी चित्रकला सीखी।
अतः अबनि बाबू की कला पर यूरोपीय, मुग़ल, ईरानी, चीनी, जापानी, राजपूत तथा अजंता का प्रभाव था। इन्हीं सब शैलियों को भारतीयता में पिरो के उन्होंने जो एक नयी कला शैली विकसित की उसे ठाकुर शैली, या बंगाल शैली या पुनरुत्थान की कला कहा गया।
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बंगाल स्कूल (Bangal School) का प्रचार व विस्तार
1905 में अबनि बाबू कलकत्ता कला विद्यालय के प्राचार्य बने।कला में स्वदेशीता को समाहित कर उन्होंने कलाकर्म प्रारम्भ किया। यहाँ से उनके शिष्य तैयार हुए जो देश के विभिन्न भागों में फैले।
- इसी वर्ष उन्होंने Indian Oriental Society of Art नामक जर्नल शुरू किया।
- उनके जर्नल के माध्यम से कला का प्रचार पूरे देश में होने लगा।
- अख़िकर, बंगाल में में जन्मी कला शैली कला में भारतीयता की भावना लिए थी।
- आगे चल के ये पुनरुत्थान की कला पूरे देश में फैल गयी।
- इस कला आंदोलन ने देश की कला को एक नयी दिशा दी जिसकी इस समय बहुत आवश्यकता थी।
बंगाल स्कूल (Bangal School) की आलोचना
कुछ लोगों ने इस कला शैली की आलोचना भी की। बंगाल स्कूल या बंगाल शैली बंगाल की या कहें तो कलकत्ता में जन्मी चित्रशैली थी।
आलोचकों का कहना था कि इस शैली में नया व रचनात्मक जैसा कुछ नहीं है। बल्कि उल्टा यह शैली कला को पीछे की ओर ले जा रही है। किंतु तत्कालीन परिवेश, राजनैतिक अस्थिरता, व स्वदेशी आंदोलन के संदर्भ में यह कला आंदोलन महत्वपूर्ण बन जाता है।
बंगाल स्कूल के कलाकारों ने अजंता के चित्रों की रेखाओं की लयात्मकता व प्रभाव को दर्शाने का अच्छा प्रयास किया। इनके चित्रों में मुग़ल, राजपूत व अन्य शैलियों के प्रभाव भी देखे जा सकते हैं।
संक्षिप्त में कहें तो ये प्रयोग उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप सही व आवश्यक था।
बंगाल स्कूल (Bangal School) की विशेषताएँ
समन्वय की शैली-
- बंगाल शैली एक समन्वयात्मक कला शैली थी।
- इसमें अजंता, मुग़ल तथा राजस्थानी शैली का प्रभाव था।
- विदेशी कला शैलियों में जापानी, चीनी, ईरानी व यूरोपीय कला शैली का मिश्रण भी इस कला शैली में था।
स्वाभाविकता व सरलता
- बंगाल शैली बहुत ही सरल व स्पष्टता वाली कला शैली थी।
- यह स्वाभाविक शैली थी जिसेमें नियमों का लचिलापन व सरलता थी।
- इसको चित्रकार अपने अनुसार अलग तरीक़े से चित्र में प्रयोग कर सकता था।
रेखांकन को महत्व
- जैसा कि बताया जा चुका है कि बंगाल शैली की प्रेरणा मुख्य रूप से अजंता से ली गयी है।
- अतः अजंता के चित्रों के सशक्त रेखाओं का प्रयोग इस कला शैली में ख़ासतौर पर किया गया।
शरीर रचना
- इस शैली में शरीर रचना में प्राचीन नियमों का पालन किया गया।
- पुनः शरीर रचना में भारतीय चित्रकला शैली अजंता के चित्रों को आदर्श माना गया।
रंग संयोजन
- इस शैली का रंग संयोजन कोमल व सामंजस्य से पूर्ण है।
- मुख्यतः जल रंगों का प्रयोग हुआ है।
- किसी ने वाश तकनीक का प्रयोग किया तो किसी ने टेम्परा तकनीक का सहारा लिया।
विषय-वस्तु
- चित्रों के विषय में स्वदेशीता का धायन रखा गया है।
- भारतीय परिवेश में भरतिए ऐतिहासिक, पौराणिक एवं साहित्यिक विषयों पर चित्रों का निर्माण किया गया।
- माडल व फ़टाग्रफ़ी से दूर, काल्पनिक चित्रों पर ध्यान दिया गया।
- अतः इसमें भारतीय परम्परा अनुरूप लघु चित्रों का चित्रण हुआ है।
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